kavita - 002 - चाय पे चर्चा
दूसरे मित्र जो सुर सुर चाय की चुस्की लगा रहे थे | देश के चक्कर मे चाय ठंडी न हो जाए इस दुविधा से घबरा रहे थे | बोले मे तुम्हारी बात पूरी तरह से मानता हु | जितना मे इस देश को जनता हु | इस देश मे रहने वाले ही इससे से आजादी मांगते है | पॉपुलैरिटी पाने को आ सहनशीलता का गान गुनगुनाते है | हद तो तब हो जाती है जब इस देश का भविषय ही इसके मुक्ति मांगता है, इसका होके भी इसको अपना शत्रु मानता है |
तीसरे मित्र जो सामने बैठी कन्या को छुप छुप के नीहर रहे थे | देश मे बढ़ती बलात्कार, महिला उत्पीड़न के खिलाफ अपनी आवाज उठा रहे थे | बोले इस देश की महिला आज भी इस देश मे असुरक्षित है | इस देश के पुलिस और सरकार पूरी तरह आव्य्वस्थित है |
सामने बैठा चाय वाला मंद मंद मुस्कुरा रहा था | अपनी चाय और देश के समस्या मे लिंकिंग दिखला रहा था | जब तक ये चाय चलती है सबको देश के चिंता खलती है | चाय खत्म होते ही साब बदल जाता है | कोई सूट बूट कोई कुरता पहन देश के शोषण मे जूट जाते है | न किसी को देश न देश के जनता नज़र आती है बस अपनी जेब भरने के युक्ति समझ जाती है | काश मेरी चाय कुछ एस असर दिखती के हर वक्त इनको मेरे देश के चिंता सताती, तो न कोई आरक्षण न देश मे आजादी के लिए लड़ता और मेरा भारत देश फिर से सोने के चिड़िया बनता|
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