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Showing posts from July, 2017

Kavita - 014 सन था 2016 उम्र हुए 26

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सन था 2016  उम्र हुए 26 | घर वालो ने मुहीम छेड दी करो  बेटा शादी एस सून एस प्लीज | फिर क्या अखबारों मे छप गए पर्चे  ऑनलाइन अकाउंट भी बनवाए थे  और नाते रिश्तेदारों को संक्षिप्त पैगाम भीजवाए थे | अडोसी पडोसीओ ने भी इसमे पूर्ण किआ सहयोग और शादी शादी कर के नरो से गुण उठा धरती लोक | यार दोस्त ने भी फिर अपने रंग दिखाए थे | की कब करेगा शादी और फिर कब बच्चे आयेंगे | भाई चाचा सुनने हम कब तेरे घर पर आयेंगे |यारो मेरी ऐसी वाट लगी की आफत सी बन आई थी | बाइक भी मुझको शादी की घोड़ी लगती ऑफिस मे ससुराल नज़र आई थी | फिर कुछ महीनो बाद फोटो के गठरी आई थी | चुन चुन कर घरवालों ने कुछ कन्याए दिखलाए थी | कोई उनको लगी गुणवान  कोई सीधी साधी नज़र आई थी | खूब सुने लेक्चर पर मुझे समाज कोई न आई थी | जाने दिल क्या ढूंढ रहा था समाज मे कुछ न आरा था | शायद किसी रोज किसी ऐसी का फोटो आयेगा | देख के जिसको मेरा दिल भी शादी को चाहेगा | फिर चाहे उम्र 26  या 30  चढ़ आई हो | बेंड बजे संग उसको लेने जाएगा | सन था 2016  उम्र हुए 26  

Kavita - 013 गम का सौदा

ऐ काश किसी चौराहे पर इस गम का सौदा हो जाता | सौदागर भी खुश होता और मेरा दिल भी हल्का हो जाता  |  बिन सोच समझ  बिन मोल भाव अपना सब गम मै उसको दे आता   बदले मै चाहे कंकड़ पत्थर  ख़ुशी ख़ुशी मै ले आता | जाने कितने साल महीने दिल ये दर्द छुपाए बैठा  है | बिखरे टूटे अरमानो का बोझ उठाते फिरता है | अब फीकी सी चेहरे की हसी इसे छुपा ना पारी है | पल पल बस मुझको बीती बात ही याद आरी है | काश कही से कोई गम का सौदागार मिलने आ जाए,  इस गम से भरे हुए इस दिल को हल्का कर जाए | ऐ काश किसी चौराहे पर इस गम का सौदा हो जाता |

Kavita - 012 छम छम करतीं बारिश क़ी बुँदे

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छम छम करतीं बारिश क़ी बुँदे जब शनिवार को आई थी | चाय की लम्बी चुस्की ले कुर्सी पे कमर झुकाई थी | बैठे बैठे शाम हो गई सब याद पुरानी आई थी |छप छप करते बारिश मे जब खूब भीग कर आते थे कागज़ की कश्ती संग पूरी दुनिआ मे उधम मचाते थे | टर टर करते मेंढ़को क़े पीछे दौड़ लगते थे | बस मस्ती मे पूरा दिन यु ही कट जाते थे न समय की कोई चिंता थी न थी कोई बड़ी समस्या | बस बारिश मे मस्ती और यारो की थी बड़ी संख्या | अब बढ़ती उम्र के संग यारो का कुछ पता नहीं | अब इस बारिश मे पहले जैसा मजा नहीं | इसकी छम छम मे कुछ बेमानी सी लगती है | भीगने की सोचो तो तबियत सी डोलने लगती है | कागज की कश्ती को छोड़ ट्रैफिक की चिंता डसती है | जब धीमी धीमी पकोड़ो की खुशबु  भीगी नाक तक जाती थी | सब कुछ छोड़ छाड़ बस मम्मी की याद सताती थी  फिर गीले हाथो से दबा पडोके खाते थे और मम्मी की डाट मे भी कुछ अलग स्वाद सा पाते  थे | आज पकोड़े चाय संग प्लेट मे सज क़े आते है | खूब चटनी लगाने पर भी वो बचपन का स्वाद न पाते है | चलो आज फिर बारिश मे थोड़ा सा भीग कर आते है | इस  बारिश की  छम छम की रौनक वापिस ढूंढ क़े लाते है | फिर गीले ह...