Kavita - 012 छम छम करतीं बारिश क़ी बुँदे

छम छम करतीं बारिश क़ी बुँदे जब शनिवार को आई थी | चाय की लम्बी चुस्की ले कुर्सी पे कमर झुकाई थी | बैठे बैठे शाम हो गई सब याद पुरानी आई थी |छप छप करते बारिश मे जब खूब भीग कर आते थे कागज़ की कश्ती संग पूरी दुनिआ मे उधम मचाते थे | टर टर करते मेंढ़को क़े पीछे दौड़ लगते थे | बस मस्ती मे पूरा दिन यु ही कट जाते थे न समय की कोई चिंता थी न थी कोई बड़ी समस्या | बस बारिश मे मस्ती और यारो की थी बड़ी संख्या | अब बढ़ती उम्र के संग यारो का कुछ पता नहीं | अब इस बारिश मे पहले जैसा मजा नहीं | इसकी छम छम मे कुछ बेमानी सी लगती है | भीगने की सोचो तो तबियत सी डोलने लगती है | कागज की कश्ती को छोड़ ट्रैफिक की चिंता डसती है | जब धीमी धीमी पकोड़ो की खुशबु  भीगी नाक तक जाती थी | सब कुछ छोड़ छाड़ बस मम्मी की याद सताती थी  फिर गीले हाथो से दबा पडोके खाते थे और मम्मी की डाट मे भी कुछ अलग स्वाद सा पाते  थे | आज पकोड़े चाय संग प्लेट मे सज क़े आते है | खूब चटनी लगाने पर भी वो बचपन का स्वाद न पाते है | चलो आज फिर बारिश मे थोड़ा सा भीग कर आते है | इस  बारिश की  छम छम की रौनक वापिस ढूंढ क़े लाते है | फिर गीले हाथो से जब यही पकोड़े खाएंगे शायद वो बचपन का स्वाद इसमे फिर से पायेंगे |   छम छम करतीं बारिश क़ी बुँदे जब शनिवार को आई थी 

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